Skip to main content

चीन का सामना करने के लिए अमेरिका को जर्मनी के साथ साझेदारी करनी चाहिए

अगर जो बाइडेन राष्ट्रपति चुने जाते हैं तो उनकी सबसे बड़ी विदेश नीति चुनौती चीन होगा। लेकिन यह वह चीन नहीं होगा जिसका सामना उन्होंने बराक ओबामा के साथ किया था। यह ज्यादा आक्रामक चीन होगा, जो अमेरिका के तकनीक में प्रभुत्व को उखाड़ना चाहेगा, हांगकांग मे लोकतंत्र का दम घोंटेगा और आपका निजी डेटा चुराएगा।

वैश्विक व्यापार तंत्र को बिगाड़े बिना चीन को दबाने के लिए जर्मनी के साथ साझेदारी की जरूरत पड़ेगी, जिसे बनाने में ट्रम्प असफल रहे हैं। जी हां, आपने सही पढ़ा? सोवियत संघ के साथ शीत युद्ध बर्लिन में लड़ा और जीता गया। और चीन के साथ भी व्यापार, तकनीक और वैश्विक प्रभाव पर शीत युद्ध बर्लिन में लड़ा और जीता जाएगा। जैसा बर्लिन करता है, वैसा ही जर्मनी करता है और जैसा जर्मनी करता है, वैसा ही यूरोपियन संघ करता है, जोकि दुनिया का सबसे बड़ा सिंगल मार्केट है। और जो भी देश यूरोपियन संघ को अपनी तरफ कर लेगा, वहीं 21वीं सदी में डिजिटल कॉमर्स के नियम तय करेगा।

चीन का सामना करने के लिए गठबंधन जरूरी

‘द राइज एंड फाल ऑफ पीस ऑन अर्थ’ के लेखक माइकल मंडेलबॉम कहते हैं, ‘पहले और दूसरे विश्वयुद्ध तथा शीत युद्ध में अमेरिका जीतने वाले पक्ष में था, क्योंकि हम मजबूत गठबंधन में थे। पहले विश्वयुद्ध से हम देर से जुड़े, दूसरे विश्वयुद्ध में कम देर से जुड़े। शीत युद्ध में सोवियत संघ को हराने का गठबंधन हमने बनाया। चीन का सामना करने के लिए हमें यही मॉडल अपनाना चाहिए था।’

अगर हम इसे केवल अमेरिका को महान बनाने के लिए चीन के खिलाफ खड़े होने की कहानी बना देंगे तो हम हार जाएंगे। अगर हम इसे दुनिया बनाम चीन की कहानी बनाएंगे तो हम बीजिंग को झुका सकते हैं। ट्रम्प ने चीन की अर्थव्यवस्था को स्थायी रूप से खोलने के लिए कोई कदम नहीं उठाए। खबरों के मुताबिक, ‘डील के बाद से चीन ने अमेरिकी बैंंकों और किसानों के लिए अपने बाजार खोलने के लिए कदम उठाए हैं, लेकिन वह अमेरिकी उत्पाद खरीदने के मामले में अब भी बहुत पीछे है।’

चीन के लायक हैं राष्ट्रपति ट्रम्प

ट्रम्प चीन पर पिछले किसी भी राष्ट्रपति से ज्यादा सख्त रहे हैं, जो ठीक भी है। चीन में व्यापार करने वाला मेरा एक दोस्त कहता है, ‘ट्रम्प वे अमेरिकी राष्ट्रपति नहीं हैं, जिसके लायक अमेरिका है। लेकिन वे वह राष्ट्रपति हैं, जिसके लायक चीन है।’

लेकिन मैं ‘चीन’ शब्द की जगह ‘130 करोड़ चीनी भाषी’ कहना पसंद करता हूं। क्योंकि, तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था वाले 130 करोड़ चीनी भाषियों का व्यवहार ट्रम्प की ‘अमेरिका-पहले-अमेरिका-अकेले’ रणनीति वाले 32.8 करोड़ लोग आसानी से नहीं बदल पाएंगे।

इसलिए मुझे लगता है कि ट्रम्प द्वारा चीन और जर्मनी पर विभिन्न मुद्दों के लिए एक साथ प्रहार करना ठीक नहीं है। ट्रम्प को चांसलर एंगेला मर्केल के साथ साझेदारी को प्राथमिकता देनी चाहिए थी, जो चीन की गुंडागर्दी को लेकर हमारी ही तरह चिंतित हैं। जर्मनी मैन्यूफैक्चरिंग सुपरपॉवर है, जो चीन के खिलाफ व्यापार युद्ध में महत्वपूर्ण सहयोगी साबित हो सकता है।

जर्मनी के लोग अमेरिका के साथ संबंधों को ज्यादा तवज्जो दे रहे

अब ट्रम्प भी वहां से अपने कुछ सैनिक वापस बुलाकर जर्मनी पर जोर दे रहे हैं। इसका नतीजा है कि मई 2019 में प्यू रिसर्च ने बताया कि जर्मनी के लोग चीन की तुलना में अमेरिका के साथ संबंधों को ज्यादा प्राथमिकता दे रहे हैं। आज 37% जर्मन अमेरिका के साथ संबंधों को प्राथमिकता दे रहे हैं, जबकि 36% चीन को। राष्ट्रपति बनने पर ट्रम्प ने ट्रांस-पैसिफिक साझेदारी समझौता खत्म कर दिया, जिसने अमेरिका के हित में 21वीं सदी के मुक्त व्यापार नियम तय किए थे और जिसमें चीन को छोड़कर 12 बड़ी पैसिफिक अर्थव्यवस्थाएं शामिल थीं। और अब वे जर्मनी के साथ संबंधों को कमजोर कर रहे हैँ।

इस सबके बीच ट्रम्प के सेक्रेटरी ऑफ स्टेट माइक पॉम्पिओ ने घोषणा कर दी, ‘चीनी कम्युनिस्ट पार्टी से आजादी हमारा मिशन है और अब हम चीन को कमजोर करने के लिए समान सोच रखने वाले लोकतंत्रों के साथ गठजोड़ कर नया समूह बनाएंगे।’ यह सुनकर मैं नि:शब्द हो गया।

बिना सहयोगियों के गठबंधन बनाना मुश्किल है। अगर वाकई में यह हमारा ‘मिशन’ है, तो आप रूस को लक्ष्य करने के लिए जर्मन डिफेंस द्वारा किए जा रहे खर्च के खिलाफ छोटी-छोटी शिकायत करना बंद क्यों नहीं कर देते? यह सच है कि यूरोपीय संघ के देश वाशिंगटन और बीजिंग के बीच जारी गोलीबारी में फंसने और अमेरिकी या चीनी टेक्नोलॉजी इकोसिस्टम में से किसी एक को चुनने को लेकर सजग हैं। हालांकि पिछले साल यूरोपीय संघ ने चीन को ‘प्रणालीगत प्रतिद्वंद्वी’ बताया था।

चीन जिस चीज से सबसे ज्यादा डरता है, ट्रम्प ने उसे ही बनाने से इनकार कर दिया है। यानी वाशिंगटन और बर्लिन के इर्द-गिर्द बनाया गया अमेरिका और यूरोपियन यूनियन का संयुक्त गठबंधन, जिसमें ट्रांस-पैसिफिक साझेदारी शामिल है। सोवियत संघ को रोकने के लिए 1970 के दशक में रिचर्ड निक्सन और हेनरी किसिंगर की सबसे अच्छी चाल थी अमेरिका और चीन का गठबंधन बनाना। आज चीन को संतुलित करने के लिए सबसे अच्छी चाल होगी अमेरिका और जर्मनी के बीच गठबंधन बनाना। (ये लेखक के अपने विचार हैं)



आज की ताज़ा ख़बरें पढ़ने के लिए दैनिक भास्कर ऍप डाउनलोड करें
थाॅमस एल. फ्रीडमैन, तीन बार पुलित्ज़र अवॉर्ड विजेता एवं ‘द न्यूयॉर्क टाइम्स’ में नियमित स्तंभकार


https://ift.tt/3lvcBdD

Comments

Popular Posts

सेठ ने फ्लाइट से वापस बुलवाया था, दूसरी कंपनी से कॉन्ट्रैक्ट हो गया तो भगा दिया, तीन दिन स्टेशन पर भूखे पड़े रहे

सेठ को काम शुरू करना था तो उन्होंने हमें फ्लाइट से मेंगलुरू बुलवाया था। वहां पहुंचे तो उन्होंने बताया कि अब दूसरी कंपनी के साथ कॉन्ट्रैक्ट हो गया है, इसलिए तुम्हारी जरूरत नहीं। हमने वापस जाने के लिए किराया देने का कहा तो बोले, तुम्हें पहले ही फ्लाइट से बुलवाया है, मेरा काफी पैसा खर्च हो गया। अब जाने का किराया नहीं दे सकता। अपने हिसाब से निकल जाओ। इसके बाद हम बड़ी मुश्किल से मुंबई तक आए। मुंबई स्टेशन पर तीन दिन तक पड़े रहे क्योंकि वापस जाने का किराया ही नहीं था। दो दिन से खाना नहीं खाया था। कृष्णकांत धुरिया नाम के ऑटो चालक ने खाना खिलवाया। उन्हीं के मोबाइल पर रिश्तेदार से पांच सौ रुपए डलवाए, तब कहीं जाकर गोरखपुर के लिए निकल पा रहे हैं। यह दास्तां गोरखपुर से मेंगलुरू गए उन आठ मजदूरों की है, जो मुंबई के लोकमान्य तिलक स्टेशन पर तीन दिनों तक फंसे रहे। तीन दिन भूखे थे। इन लोगों का हाल देखकर ऑटो चालक कृष्णकांत ने बात की और इन्हें तिलक नगर में शिव भोजन में खिलाने ले गया। वहां 5 रुपए में खाना मिलता है। वहां 5 रुपए में इन लोगों को एक की बजाए दो-दो प्लेट खाना दिया गया। फिर कुशीनगर ट्रेन से ये ...

इस्लामिक शिक्षण केंद्र दारुल उलूम देवबंद में कुरआन के साथ गीता, रामायण और वेदों की ऋचाएं भी पढ़ाई जा रहीं

यूपी के देवबंद में 164 साल पुराना एशिया का सबसे बड़ा इस्लामिक शिक्षण केंद्र दारुल उलूम कुरआन, हदीस की शिक्षा और अपने फतवों के लिए पहचाना जाता है। आम तौर पर यहां की लाइब्रेरी में दाढ़ी और टोपी वाले स्टूडेंट कुरआन की आयतें, वेदों की ऋचाएं और गीता-रामायण के श्लोकों का उच्चारण करते मिल जाएंगे। दरअसल यह संस्थान छात्रों को गीता, रामायण, वेद, बाइबिल, गुरुग्रंथ और अन्य कई धर्मों के ग्रंथों की शिक्षा भी देता है। दारुल उलूम के बारे में इस जानकारी से अधिकांश लोगों को आश्चर्य हो सकता है, लेकिन हर साल यहां से पास होकर ऐसे स्पेशल कोर्स में दाखिला लेने वाले छात्रों की तादाद करीब 300 है। इनमें 50 सीटें हिंदू धर्म के अध्ययन के लिए होती हैं। यहां छात्र मौलवी की डिग्री के बाद स्पेशल कोर्स चुन सकते हैं दारुल उलूम के मीडिया प्रभारी अशरफ उस्मानी बताते हैं कि यहां छात्र मौलवी की डिग्री के बाद स्पेशल कोर्स चुन सकते हैं। यहां शिक्षा के 34 विभाग हैं, 4 हजार से अधिक स्टूडेंट्स हर साल अध्ययन करते हैं। उस्मानी बताते हैं कि 24 साल पहले देवबंद की कार्यकारी समिति ने यह स्पेशल कोर्स चलाने का फैसला किया था। इसके त...