कांग्रेस नेतृत्व का मुद्दा अर्थहीन नाटक बनता जा रहा, राहुल की हार ने ही कांग्रेस के अवसर खत्म कर दिए थे
कांग्रेस नेतृत्व का मुद्दा एक अर्थहीन नाटक बनता जा रहा है। अंतरिम एआईसीसी प्रमुख सोनिया गांधी उस पद को छोड़ने बेताब हैं, जिसपर वे 21 साल से हैं। 17 महीने कांग्रेस अध्यक्ष रह चुके उनके बेटे पहले चाहते थे कि कोई गैर-गांधी यह पद संभाले, पर अब इस शर्त पर वापसी चाहते हैं कि मुख्य नियुक्तियां उनकी पसंद से हों। राहुल गांधी पार्टी की सत्ता संरचना व पदक्रम बदलने को उत्सुक हैं। हालांकि वे इस तथ्य से अनजान रहना चाहते हैं कि सार्वजनिक जीवन या राजनीति में अधिकार सफलता के साथ आता है।
पार्टी में विद्रोह के संकेत नदारद हैं
विसंगति सिर्फ गांधियों तक सीमित नहीं है। 2014 और 2019 के निराशाजनक प्रदर्शन के बाद भी पार्टी में विद्रोह के संकेत लगभग नदारद हैं। संदीप दीक्षित, शर्मिष्ठा मुखर्जी, शशि थरूर, मिलिंद देवड़ा, जयराम रमेश और कपिल सिब्बल जैसे आदतन मतविरोधियों ने भी पार्टी की स्थिति पर चर्चा को लेकर कोई कदम नहीं उठाया। हर कोई पार्टी में नंबर दो की भूमिका की उम्मीद में लगता है।
युवाओं से उम्मीद थी। लेकिन ज्योतिरादित्य सिंधिया और सचिन पायलट जैसे वंशजों ने हरा मैदान तलाशने का आसान विकल्प चुना। अब लगता है कि सिंधिया के जाने और पायलट के विद्रोह का संबंध उनसे दिसंबर 2018 में किए गए अनौपचारिक वादों को पूरा करने में गांधियों की असफलता से भी है।
उस समय सिंधिया और पायलट, दोनों आगे आकर नेतृत्व करना चाहते थे, लेकिन राहुल, प्रियंका और सोनिया ने उनकी कम उम्र का हवाला देते हुए कहा कि उन्हें आगे बड़ी भूमिकाएं दी जाएंगी। लेकिन 52 सीटों और खुद राहुल की अमेठी में हार ने सबकुछ खत्म कर दिया।
टीम राहुल के कई युवा सदस्यों ने राहुल को ही हार का जिम्मेदार माना
टीम राहुल के कई युवा सदस्यों ने निजी तौर पर 2019 की हार के लिए राहुल को जिम्मेदार माना। यह दृष्टिकोण इस साधारण सूत्रीकरण पर आधारित था कि 2019 लोकसभा चुनाव मोदी और राहुल के बीच लड़े गए, जहां सिंधिया जैसे व्यक्तिगत उम्मीदवार महत्वहीन थे क्योंकि उनके कई पुराने समर्थकों ने भी मोदी को वोट दिया, चूंकि सिंधिया राहुल का प्रतिनिधित्व कर रहे थे। इस निराशाजनक पृष्ठभूमि में पुनरुत्थान के तरीके बहुत कम हैं। हालांकि पुराने तरीके अपना सकते हैं।
अगर राहुल खुलकर पार्टी अध्यक्ष के रूप में वापसी का साहस जुटा सकते हैं तो उन्हें कांग्रेस वर्किंग कमेटी और अन्य पदक्रम स्तरों के लिए चुनावों की घोषणा करनी चाहिए, ताकि हाईकमान का लोकतांत्रिक आधार बने। नए नेता को रघुराम राजन, अभिजीत बैनर्जी जैसे विशेषज्ञों का साक्षात्कार करने की बजाय जमीनी स्तर की आवाजें सुननी चाहिए।
लोकतांत्रिक पार्टी होने के बावजूद कांग्रेस ने कार्यकर्ताओं को सुनना बंद कर दिया है। आर्टिकल 370, ट्रिपल तलाक, सीएए-एनआरसी और गलवान घाटी आदि मुद्दों पर ही पार्टी का रुख देख लीजिए। ऐसी बुदबुदाहटें और आवाजें थीं, जो ज्यादा सूक्ष्म दृष्टिकोण चाहती थीं लेकिन राहुल और सोनिया ने जिला या राज्य स्तर के पार्टी प्रतिनिधियों की बातों पर ध्यान दिए बिना अपने विचार थोपे। अपने ही कार्यकर्ताओं को न सुनना शायद पार्टी के लगातार गिरने का बड़ा कारण है।
2018 के बाद से ही एआईसीसी का सत्र नहीं हुआ
यह अजीब है कि कांग्रेस ने मार्च 2018 के बाद से एआईसीसी का सत्र आयोजित नहीं किया है, जबकि कांग्रेस संविधान के अनुसार साल में एक बार आयोजन अनिवार्य है। फैसले लेने में भी कांग्रेस पार्टी के वकीलों पर बहुत निर्भर है। ज्यादातर मुद्दों पर कपिल सिब्बल, विवेक तन्खा, अभिषेक मनु सिंघवी और अन्य के भिन्न मत होते हैं।
राजस्थान संकट जैसे ज्यादातर राजनीतिक मुद्दों पर अदालत की ओर भागने का नुकसान ही हुआ है। ए.के. एंटोनी, मोतीलाल वोरा, सुशील कुमार शिंदे की समिति समस्या सुलझा सकती थी या पायलट के खिलाफ निर्णायक कदम उठा सकती थी। सोनिया के उत्तराधिकारी राहुल होने चाहिए, इसे लेकर पार्टी में लगभग सहमति को देखते हुए, पार्टी में एक त्वरित प्रतिक्रिया और शिकायत निवारण तंत्र की जरूरत है।
राहुल पर सवाल उठते रहे हैं
कांग्रेस परिवार में राहुल के अंतर्वैयक्तिक और सामाजिक कौशलों पर सवाल उठते रहे हैं। कांग्रेस को उस खबर का खंडन करना पड़ा, जिसमें बताया गया कि एनएसयूआई की बैठक में राहुल ने कथित रूप से कहा कि जो पार्टी छोड़ना चाहे, छोड़ सकता है। 2004 में कांग्रेस से जुड़ने के बाद से ही राहुल की छवि पार्टी नेताओं के प्रति कुछ उदासीन रहने की रही है।
जनवरी 2013 में जब वे एआईसीसी के उपाध्यक्ष बने, उन्होंने जयपुर में कहा कि वे ‘सब चलता है’ वाले तरीके को सहने की बजाय ‘सभी का आकलन करेंगे’ (कांग्रेस नेताओं का)। लेकिन चुनावी हारों, मतभेदों और संभावित दल-बदल का सामना कर रही पार्टी के लिए, भविष्य के कांग्रेस लीडर को क्षेत्रीय नेताओं को खुश रखना होगा और ढेरों मतभेद सहने होंगे। (ये लेखक के अपने विचार हैं)
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