तब पिता की जिद ने बिहार में नहीं बनने दी थी सरकार, अब चिराग की जिद और गठबंधनों की खींचतान का क्या निकलेगा नतीजा?
क्या ये महज संयोग है कि अब जब तीन फेज में चुनाव की घोषणा हो चुकी है तो याद आना स्वाभाविक है कि बिहार के हालिया चुनावी अतीत में इससे पहले 2005 में भी तीन चरणों में चुनाव हुए थे। और क्या इसे भी महज एक संयोग माना जाए कि उस बार के चुनाव में सत्ता की गाड़ी पटरी से सिर्फ इसलिए उतर गई थी कि रामविलास पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी (लोजपा) अच्छी खासी 29 सीट लेकर इतराने लगी थी। नतीजा ये हुआ कि लोजपा 29 सीट से बनी चाभी जेब में रखकर तोलमोल ही करती रह गई और इससे पहले कि उसकी चाल किसी खाने फिट बैठती, राज्य में राष्ट्रपति शासन लग गया।
अक्टूबर में दोबारा चुनाव हुए। पासवान की सीटें घटकर 10 पर आ गईं। बाद के तीन चुनाव में 4, 6 और 5 फेज में वोटिंग हुई यानी अक्टूबर 2005 के चुनाव 4 फेज में पूरे हुए तो दिसंबर 2010 में चुनाव आयोग ने 6 फेज में चुनाव प्रक्रिया पूरी कराई। पिछली बार 5 फेज में वोटिंग हुई थी और नतीजे 12 नवंबर को आए थे। इस बार 10 को आएंगे।
ये 2020 है। 15 साल बाद चीजें फिर कुछ वैसी ही दिशा में जाती दिख रही हैं। चुनाव तीन फेज में होने जा रहे हैं। हालांकि, हालात देख तो यही लगता है कि कोरोना के कारण न तो आयोग अभी इसके लिए पूरी तरह सहज था और न ही एनडीए छोड़ बाकी राजनीतिक दल।
पार्टियां तो खैर कभी भी अंतिम क्षण तक तैयार नहीं हुआ करतीं। बीते 4-5 चुनाव में तो कम से कम यही दिखाई दिया है। चुनाव तारीखों की घोषणा होने के बाद इस बार भी राजनीतिक जमीन पर जैसा बवाल मचा हुआ है, उसमें 2005 (फरवरी) दोहराने जैसी आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता।
‘बिहार 2020’ में सीधे-सीधे झांकें तो एनडीए और यूपीए दो ही गठबंधन सामने दिखाई देते हैं, लेकिन शायद इतना ही नहीं है। एनडीए में ऊपर से जो भी दिखे, अंदर सबकुछ उतना भी सामान्य नहीं है। अंतर सिर्फ इतना है कि उस बार ‘चुनाव बाद’ सौदेबाजी मची थी और तब पिता (रामविलास पासवान) केंद्र में थे, इस बार पुत्र (चिराग पासवान) केंद्र में हैं और चुनाव-पूर्व सौदेबाजी का घमासान जारी है।
इसके कई सिरे हैं। चिराग का लगातार नीतीश पर आक्रामक होना और भाजपा या उसके नेतृत्व पर कोई टिप्पणी न करने में कई संकेत पढ़े जा रहे हैं। कुछ मुखर तो कुछ अंदर-अंदर समझे जाने लायक।
गिरिराज सिंह ने एक दिन पूर्व चिराग में ‘क्षमता’ देख एक संकेत दिया, तो चुनाव घोषणा के साथ जदयू (केसी त्यागी) ने आक्रामक बयान देकर अलग संदेश दे दिया। नीतीश कुमार ‘मांझी को हम संभाल लेंगे, चिराग भाजपा देख ले’ जैसा बयान देकर अपनी मंशा पहले ही साफ कर चुके हैं।
ये संकेत और संदेश यही बता रहे हैं कि भाजपा और जदयू तो अपने-अपने पलड़े झाड़-पोंछकर संभाल चुके हैं, लोजपा को देखना है कि वह अपना कांटा कहां और कितना फिट कर पाती है। पर्यवेक्षक तो मान ही रहे हैं कि चिराग ने ‘कद से ज्यादा’ सौदेबाजी का आग्रह नहीं छोड़ा तो लोजपा का किनारे लगना तो तय ही है, उसे ‘इस जिद के साथ’ ठौर कहां मिलेगा, कहना आसान नहीं है।
143 सीट पर दावेदारी अलग बात है, मोर्चे से अलग होकर इतना बड़ा ‘मोर्चा’ खोल पाना दूर की कौड़ी लाना होगा। महागठबंधन की जमीन भी बहुत साफ नहीं है। इतनी समतल तो बिलकुल नहीं कि फसल आसान दिखाई दे। राजद और कांग्रेस के साथ ही इस मोर्चे में वाम दल (भाकपा, माकपा, भाकपा-माले) बड़ा फैक्टर हैं।
वाम मोर्चे में भी अकेले तीन सीट के साथ माले का पलड़ा भारी है, लेकिन बाकी दोनों शून्य वाले भी अपनी पुरानी जमीन तलाशने की जुगत में हैं। उपेन्द्र कुशवाहा और मुकेश सहनी को लेकर अभी बहुत कुछ साफ नहीं है। मौजूदा हालात में कांग्रेस को लेकर भी बहुत दावे से नहीं कहा जा सकता कि ‘राजद और कांग्रेस’ इतनी आसानी से सीटों की साझेदारी फार्मूले पर सहमत हो पाएंगे।
हालांकि, ‘दोनों गठबंधनों’ का सच एक ही है कि न इन्हें कोई और न उन्हें कोई ठौर। यानी मौजूदा हालात में न भाजपा का गुजारा जदयू के बिना है, और कांग्रेस का हाथ भी राजद के साथ बिना मजबूत होने से रहा।हालांकि, इस सारी कवायद के बीच एक ‘तीसरे मोर्चे’ की सम्भावना की तलाश को भी सिरे से नकारा नहीं जा सकता।
माना जा रहा है कि किसी गठबंधन में जगह न मिलने पर कई छोटे दल इस तौर पर अपनी खिचड़ी पका सकते हैं। वैसे एक ‘चौथा सिरा’ असदुद्दीन ओवैसी का भी रहेगा ही, जो कैसी खिचड़ी पकाएंगे, किसके गले की फांस बनेंगे और किसके लिए शहद, अभी तय करना जल्दबाजी होगा।
फिलहाल कोरोना काल के इन विपरीत हालात में चुनावों का होना इस बार अगर निर्वाचन आयोग के लिए बड़ी चुनौती है तो राजनीतिक दलों के लिए भी यह बड़ी चुनौती पेश करने जा रहा है। यह भी सम्भव है कि 'कोरोना अनुशासन' के आईने में ‘2020’ शायद आगे आने वाले वर्षों की राजनीति के लिए ‘चुनाव सुधार’ की एक नई जमीन भी तैयार कर जाए, जिसका समय के साथ स्वागत करना होगा।
हालांकि, चुनाव सुधार की एक नई और उर्वर जमीन तो नब्बे के दशक में तत्कालीन निर्वाचन आयुक्त टीएन शेषन के दौर में भी तैयार हुई थी। उस अचानक उर्वर हुई जमीन को मठ्ठा डालकर फिर कैसे उसी ‘बंजर प्रदेश’ का हिस्सा बना दिया गया, हम सबने नजदीक से देखा-महसूस किया है।
इन चुनावों का एक और भी सिरा है...
चुनाव तारीखों का ऐलान हालांकि उसी गुणा-गणित के साथ हुआ दिखाई दिया है जिसकी सम्भावना थी। माना जा रहा था कि किसी भी हालत में चुनाव प्रक्रिया यानी मतगणना तक का दौर दस नवम्बर से पहले जरूर पूरा कर लिया जाएगा। इसका कारण भी साफ है। 14 को दीवाली है और 20 नवम्बर को छठ।
जाहिर है अगर सब कुछ ‘मनोनुकूल’ रहा तो मौजूदा परिदृश्य में जीत के प्रति आश्वस्त एनडीए ‘जीत’ के पहले ही ‘दीवाली मनाना’ चाहेगा। ये अलग बात है कि 2005 की तर्ज पर तीन चरण और ‘लोजपा की जिद’ किसी करवट न बैठी तो नतीजे गड्ड-मड्ड होने भी तय हैं।
और तब उन हालात में किसी नई जोड़तोड़ की सम्भावना या नए उलटफेर से इनकार भी तो नहीं किया जा सकता है। हालांकि, चुनाव पूर्व 'चैनली सर्वे' से अलग राय और नजर रखने वाला एक पक्ष यह कहने से संकोच नहीं कर रहा कि इस बार के चुनाव में वोटर का मन ‘अंदर से कुछ, बाहर से कुछ’ के अंदाज में कोई नया उलटफेर कर दे तो बहुत आश्चर्य नहीं होगा।
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