पिछले दिनों एक फैमिली कोर्ट में अजीबोगरीब मामला आया। इसमें 40 साल की होने को आई एक पत्नी ने मां बनने का हक मांगा। पति का तर्क था कि पत्नी उसे पर्याप्त इज्जत नहीं देती, लिहाजा वो साथ नहीं देगा। पत्नी ने हारकर आईवीएफ यानी कृत्रिम तरीके से मां बनने पर सहमति चाही लेकिन पति अपने शुक्राणु देने को राजी नहीं। उल्टा उसने अपनी बीवी पर सवालों का तमंचा तान दिया और खुद नौकरी छोड़कर उससे गुजारा भत्ता मांग रहा है। इरादा साफ है। कोर्ट के फेरे लगाते हुए पत्नी का गर्भाशय जर्जर हो जाए और वो कभी मां न बन सके। मिन्नतें करें वो अपनी जिंदगी के जागीरदार बन बैठे उस मर्द से।
अफसोस। मां बनने की इच्छा रखने वाली औरत को मां न बनने देकर मर्द उसे सजा दे पाता है। या फिर इसके ठीक उलट औरत को तब तक प्रेग्नेंट करता रहता है, जब तक उसका गर्भाशय आटे की पुरानी बोरी जैसा बेडौल और कमजोर न हो जाए। असल में सारा मसला औरत के इसी अंग-विशेष से जुड़ा हुआ है। बच्ची मां के गर्भ से बाहर आई नहीं कि उसे मां बनने के लिए तैयार करने की कवायद शुरू हो जाती है। खेलने के लिए उसे गुड़िया मिलती है ताकि उसकी देखरेख के बहाने बच्ची रतजगे की आदत डाल ले। बच्चे के जन्म में आधे हिस्सेदार रहे पति या तो बगल के कमरे में नींद पूरी कर रहे होंगे। या फिर नए जमाने के हुए तो बाजू में आधी नींद में मां-बच्चे पर कुड़कुड़ा रहे होंगे।
किस्सा यहीं खत्म नहीं होता, मेडिकल साइंस भी पुरुष-सत्ता को सहेजने का कोई मौका नहीं छोड़ता। वो बताता है कि मां बनने के कितने दिनों बाद औरत का शरीर दोबारा यौन संबंध बनाने को तैयार हो जाता है। कितने दिनों बाद औरत का मन राजी होगा, इसपर कोई बात नहीं होती।
रेप की धमकी भी तो आखिरकार मर्द इस गर्भाशय के चलते दे पाते हैं। कहीं की न छोड़ने का ये प्रण मर्दों ने इतना पक्का कर रखा है कि सड़क पर बिखरे बाल और कपड़ों में अनाश-शनाप बोलती औरतों को भी नहीं बख्शा जाता। वो औरत, जिसे अपना नाम तक नहीं पता, घर-रिश्ते तो दूर, वो भी वहशियत से सुरक्षित नहीं। कुछ दिन पहले इक्का-दुक्का मानवाधिकार संस्थाओं ने मानसिक तौर पर कमजोर औरतों के गर्भाशय हटाने की मांग कर डाली थी। उनका तर्क लाजवाब था- जिन औरतों को अपने कपड़ों की सुध नहीं, वे बच्चा कैसे संभालेंगी! बिल्कुल सही।
वे बच्चा नहीं संभाल सकतीं लेकिन संस्थाओं ने ये क्यों नहीं कहा कि सड़क पर घूमते वहशी पुरुषों की नसबंदी करवा दें ताकि औरतें बची रहें। मां बनने के पक्ष और विपक्ष में तमाम तर्क पुरुषों के ही पाले में जा रहे हैं। पिता कहलाने का सुख चाहिए तो औरत प्रेगनेंट होगी। औरत को मजा चखाना है तो भी वो प्रेगनेंट होगी। और सड़क पर चलते हुए यौन सुख की इच्छा उछालें मारने लगे तो भी औरत प्रेगनेंट होगी। गोया औरत का गर्भ न हुआ, सुलभ शौचालय की दीवार हो गई, जहां जब मन आया, आप फारिग हो जाएं।
लड़की ने इनकार क्या किया, मर्द का इगो सांप जैसा फुफकारता है, फिर उसे कुचलने की कवायद शुरू होती है
और अगर किसी औरत ने अपने गर्भाशय पर अपनी मर्जी चलाई, झट से मर्दों का समूचा अस्तित्व डोल उठता है। गले की नसें फुलाकर वे इस हक को अनैतिक करार देते हैं। और ऐसा करने वाली अपराध के गहरे कुएं में धकेल दी जाती है। क्यों भई, जब मेरे दांतों या बालों पर मेरा अधिकार है तो मेरे गर्भाशय के मालिक आप कैसे हुए?
नौ महीने तक मैं उबकाइयां लूं और आप जीभ चटकाते हुए अपनी पसंदीदा डिश उड़ाएं। मेरा शरीर खुद मुझपे भारी हो जाए और आप जिम में डोले-शोले बनाएं। नौ महीने बाद पेट पर बड़ा-सा नश्तर झेलूं मैं और पिता आप कहलाएं। अगर मां कामकाजी हुई तो दफ्तर के बाकी पुरुष भी उसे चीरने को तैयार रहेंगे। हाल ही में मेरी एक सहकर्मी मैटरनिटी लीव पर गई तो एक पुरुष सहकर्मी ने मजाक में मुझसे कहा- काश मैं भी औरत होता तो मजे में 6 महीने मुफ्त तनख्वाह उड़ाता।
मर्दों की दुनिया का ये खेल वैसे काफी पुराना है। अमेरिकी लेखक नथानियल हॉथॉर्न की किताब 'द स्कारलेट लेटर' को पढ़ते हुए आप दुनियाभर में फैले अपने बिरादरी वालों के बारे में जान सकेंगे। इस उपन्यास में उन औरतों का किस्सा है, जो अपने गर्भाशय पर अपना हक मानने का अपराध कर बैठी थीं। अब अपराध हुआ है तो सजा भी मिलेगी। लिहाजा औरतों का चेहरा और पूरा शरीर लाल रंग से रंगा जाता। लाल रंग इसलिए कि पता चले कि वे हत्यारिन हैं।
इसमें हेस्टर नाम की एक बागी औरत को न केवल लाल रंगा गया, बल्कि उसकी पूरी सजा टीवी पर दिखाई गई, ताकि उसे देख रही औरतें अपना कलेजा थाम लें और मेरा गर्भ- मेरी मर्जी, जैसी बचकानी बातें करना बंद कर दें। हेस्टर को महीनेभर अपनी गोद में एक गुड़िया लिए घूमना था ताकि उसे पल-पल याद रहे कि उसने एक भ्रूण की हत्या की है। इस यंत्रणा में ढेरों औरतें शर्म या ग्लानि से मर जाती थीं। हेस्टर जिंदा रही।
वो हम औरतों जैसी मजबूत होगी शायद। लेकिन सहनशीलता की पराकाष्ठा बेमानी हैं। मर्दों को सिखाना होगा कि औरत की कोख को सार्वजनिक शौचालय समझना बंद कर दो। पिता बनने की इच्छा कोई 11वीं में विषय चुनने की इच्छा नहीं, जिसका तुमसे और सिर्फ तुमसे ताल्लुक हो। ये सबसे पहले और सबसे ज्यादा औरत का फैसला है।
बात बराबरी की... बाकी कॉलम यहां पढ़ें
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