Skip to main content

इस साल भी कांग्रेस के लिए कोई खास उम्मीद नहीं दिखती

कांग्रेस के लिए 2011-20 के दशक का दूसरा हिस्सा (2014-2020) बुरा रहा है। पार्टी न केवल 2014 में बुरी तरह हारी बल्कि राज्य स्तर पर भी कई हारों का सामना करना पड़ा। फिर 2019 के लोकसभा चुनावों में भी ऐसा ही हुआ। 2014 से 2020 के बीच 39 विधानसभा चुनाव हुए, जिनमें से कांग्रेस महज 9 जीती (सहयोगियों के साथ)।

पार्टी के अंदर वरिष्ठ नेताओं के विद्रोह और असंतोष से भी पार्टी की संगठनात्मक संरचना की बुरी सेहत का संकेत मिलता है। अब साल 2021 से भी कांग्रेस को शायद ही कोई उम्मीद हो। चुनावी मायनों में 2021 कांग्रेस के लिए पिछले 6 वर्षों से कुछ अलग नहीं रहेगा। इस साल के मध्य में पांच राज्यों में चुनाव होने हैं लेकिन कांग्रेस एक भी जीतने की उत्साह या उम्मीद नहीं दिखा रही है।

पश्चिम बंगाल में कांग्रेस हाशिये पर है और 1977 के बाद से सत्ता में नहीं आई है। उसका वोट शेयर एक अंक में है। कांग्रेस ने 2021 विधानसभा चुनावों के लिए लेफ्ट के साथ गठबंधन किया है, लेकिन इसके बावजूद पार्टी के लिए कोई उम्मीद नहीं है। राज्य में भाजपा और तृणमूल कांग्रेस के बीच ही सीधी टक्कर होगी।

वर्ष 2016 तक असम में कांग्रेस सत्ताधारी पार्टी थी। उसने 2001 के बाद से तीन लगातार सरकारें बनाईं लेकिन 2016 में भाजपा से हार गई। फिर कांग्रेस उबर नहीं पाई। असम में तीन बार कांग्रेस से मुख्यमंत्री रहे तरुण गोगोई के गुजरने के बाद कांग्रेस की मुसीबतें बढ़ी ही हैं। कांग्रेस को उनकी जगह लेने वाला खोजना मुश्किल होगा। कांग्रेस अभी भी असम में मुख्य विपक्षी पार्टी है और वह अब भी भाजपा को चुनौती दे सकती है, लेकिन इसके लिए पार्टी को मेहनत करनी होगी, जिसके संकेत अभी नजर नहीं आ रहे। बल्कि यह संकेत दिख रहे हैं कि भाजपा बड़ी आसानी से यह चुनाव भी जीत जाएगी।

तमिलनाडु के चुनाव में कांग्रेस की न के बराबर भूमिका है क्योंकि वहां ही राजनीति पर द्रविड़ पार्टियों डीएमके और एआईएडीएमके का दबदबा है। कांग्रेस ज्यादातर डीएमके की सहयोगी पार्टी ही रही है और अब भी यही भूमिका निभा सकती है लेकिन बिहार चुनाव में उसके बुरे प्रदर्शन को देखते हुए वह डीएमके के साथ सीटों के बंटवारे को लेकर सुरक्षात्मक ही रहेगी। कांग्रेस 1967 के बाद से कभी भी तमिलनाडु की राजनीति में हावी नहीं रही और 2021 के चुनावों से भी कोई अलग उम्मीद नहीं है। अगर डीएमके 2021 विधानसभा चुनाव जीत जाती है तो कांग्रेस को कम से कम इतनी तसल्ली रहेगी कि वह राज्य में गठबंधन सरकार की सहयोगी है, लेकिन इसे लेकर बहुत अनिश्चितता है कि तमिलनाडु चुनाव में क्या होगा। यहां चुनावी सफलता के लिए गठजोड़ जरूरी हैं लेकिन अभी इन्होंने आकार नहीं लिया है। हमें अब भी देखना है कि भाजपा तमिलनाडु चुनावों में क्या रास्ता अपनाती है। क्या वह अकेले लड़ेगी या एआईएडीएमके के साथ गठबंधन करेगी, जो पहले ही भाजपा को कड़ा संदेश दे चुकी है।

चूंकि केरल एलडीएफ और यूडीएफ के बीच दशकों से झूल रहा है, तो इस बार यूडीएफ की बारी होनी चाहिए। कांग्रेस यूडीएफ के अंदर मुख्य पार्टी है, इसलिए केरल कांग्रेस के लिए सबसे अच्छा विकल्प है, लेकिन हाल ही में हुए स्थानीय निकाय के चुनाव में उसका प्रदर्शन देखते हुए लगता है कि यूडीएफ के लिए वापसी करना आसान नहीं होगा। केरल में चुनावों का फैसला बहुत कम अंतर से होता रहा है, लेकिन 2016 के विधानसभा चुनावों में एलडीफ की अच्छी जीत हुई थी और उसने यूडीफ को 4% वोटों से पीछे किया था। कांग्रेस अगर केरल में वापसी करना चाहती है तो उसे खुद को संभालना होगा।

यह देखना जरूरी है कि भाजपा स्थापित बनावट के गणित को बिगाड़ सकती है क्योंकि उसने 2016 के विधानसभा चुनावों में 14.6% वोट हासिल किए थे। कांग्रेस, जो पुडुचेरी में सत्ताधारी पार्टी है (डीएमके साथ गठबंधन में), उसे उन पांच राज्यों में से अपनी सत्ता वाला यह एकमात्र राज्य बचाने के लिए कड़ी मेहनत करनी होगी, जिनमें इस साल चुनाव होने हैं। पुडुचेरी में सीटों की कम संख्या और बहुध्रुवीयता को देखते हुए गठबंधन ही चुनावी सफलता के लिए सबसे जरूरी होंगे।

इस वर्ष के मध्य विभिन्न राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनावों में राजनीतिक प्रतिस्पर्धा की प्रकृति को देखते हुए कांग्रेस के लिए शायद ही कोई सकारात्मक संभावना नजर आए। कांग्रेस बस यही कर सकती है कि वह पार्टी संरचना को मजबूत करने पर ध्यान दे, विभिन्न स्तरों पर पार्टी पदाधिकारियों के लिए चुनाव कराने की दिशा में काम करे और या तो अपने नेतृत्व को मजबूत करे या नया नेतृत्व तलाशे।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)



आज की ताज़ा ख़बरें पढ़ने के लिए दैनिक भास्कर ऍप डाउनलोड करें
संजय कुमार, सेंटर फॉर स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसायटीज (सीएडीएस) में प्रोफेसर और राजनीतिक टिप्पणीकार।


https://ift.tt/3s7UqOo

Comments

Popular Posts

सेठ ने फ्लाइट से वापस बुलवाया था, दूसरी कंपनी से कॉन्ट्रैक्ट हो गया तो भगा दिया, तीन दिन स्टेशन पर भूखे पड़े रहे

सेठ को काम शुरू करना था तो उन्होंने हमें फ्लाइट से मेंगलुरू बुलवाया था। वहां पहुंचे तो उन्होंने बताया कि अब दूसरी कंपनी के साथ कॉन्ट्रैक्ट हो गया है, इसलिए तुम्हारी जरूरत नहीं। हमने वापस जाने के लिए किराया देने का कहा तो बोले, तुम्हें पहले ही फ्लाइट से बुलवाया है, मेरा काफी पैसा खर्च हो गया। अब जाने का किराया नहीं दे सकता। अपने हिसाब से निकल जाओ। इसके बाद हम बड़ी मुश्किल से मुंबई तक आए। मुंबई स्टेशन पर तीन दिन तक पड़े रहे क्योंकि वापस जाने का किराया ही नहीं था। दो दिन से खाना नहीं खाया था। कृष्णकांत धुरिया नाम के ऑटो चालक ने खाना खिलवाया। उन्हीं के मोबाइल पर रिश्तेदार से पांच सौ रुपए डलवाए, तब कहीं जाकर गोरखपुर के लिए निकल पा रहे हैं। यह दास्तां गोरखपुर से मेंगलुरू गए उन आठ मजदूरों की है, जो मुंबई के लोकमान्य तिलक स्टेशन पर तीन दिनों तक फंसे रहे। तीन दिन भूखे थे। इन लोगों का हाल देखकर ऑटो चालक कृष्णकांत ने बात की और इन्हें तिलक नगर में शिव भोजन में खिलाने ले गया। वहां 5 रुपए में खाना मिलता है। वहां 5 रुपए में इन लोगों को एक की बजाए दो-दो प्लेट खाना दिया गया। फिर कुशीनगर ट्रेन से ये ...

इस्लामिक शिक्षण केंद्र दारुल उलूम देवबंद में कुरआन के साथ गीता, रामायण और वेदों की ऋचाएं भी पढ़ाई जा रहीं

यूपी के देवबंद में 164 साल पुराना एशिया का सबसे बड़ा इस्लामिक शिक्षण केंद्र दारुल उलूम कुरआन, हदीस की शिक्षा और अपने फतवों के लिए पहचाना जाता है। आम तौर पर यहां की लाइब्रेरी में दाढ़ी और टोपी वाले स्टूडेंट कुरआन की आयतें, वेदों की ऋचाएं और गीता-रामायण के श्लोकों का उच्चारण करते मिल जाएंगे। दरअसल यह संस्थान छात्रों को गीता, रामायण, वेद, बाइबिल, गुरुग्रंथ और अन्य कई धर्मों के ग्रंथों की शिक्षा भी देता है। दारुल उलूम के बारे में इस जानकारी से अधिकांश लोगों को आश्चर्य हो सकता है, लेकिन हर साल यहां से पास होकर ऐसे स्पेशल कोर्स में दाखिला लेने वाले छात्रों की तादाद करीब 300 है। इनमें 50 सीटें हिंदू धर्म के अध्ययन के लिए होती हैं। यहां छात्र मौलवी की डिग्री के बाद स्पेशल कोर्स चुन सकते हैं दारुल उलूम के मीडिया प्रभारी अशरफ उस्मानी बताते हैं कि यहां छात्र मौलवी की डिग्री के बाद स्पेशल कोर्स चुन सकते हैं। यहां शिक्षा के 34 विभाग हैं, 4 हजार से अधिक स्टूडेंट्स हर साल अध्ययन करते हैं। उस्मानी बताते हैं कि 24 साल पहले देवबंद की कार्यकारी समिति ने यह स्पेशल कोर्स चलाने का फैसला किया था। इसके त...